एक ही कक्षा में,
एक ही दिशा में,
एक ही धुरी पर ,
एक ही तरह से घुमते हुए,
पृथ्वी भी कभी ऊब जाती होगी,
तभी फिर चाँद को छुपा कर,
कभी सूरज को ओढ़ कर
खेल खेला करती है ,
विविध -विचित्र ....
..,
और कभी घोर नैराश्य में डूब जाती होगी,
अंतस में कचोटते अवसाद ,
उत्खनन की पीढ़ा भी होगी .. क्षत -विक्षत अंगों में ,
तभी फिर विचलित होती है
कभी कराहती है ,थरथराती है,
जब दर्द उठता होगा कहीं . .
जब अंक में कुछ बल घट जाता होगा ..//
फिर सहसा ही ख़याल आता है, कहते कहते ..
सुनने वाले भी कुछ अचरज में हों शायद,
धरती की वेदना से ,
किसी का हृदय - संचार क्यों सहवास करने लगा . .
तब स्व के भाव में आकर ..कहता हूँ ,
ये कुछ नहीं ..
बस इक स्वार्थपोषित प्रयास है
अपनी घुटन को ,
एक दुसरे उबास से अनुनादित करने का ..!